कुछ क़रीबी बातें

अगर दोस्त की बात करूं तो शायद ही मेरा कोई करीबी मित्र होगा जो मुझे अच्छे से जानता होगा। मित्र बनना भी एक कला है जो मुझमें शायद नही है। मैं जिन भी लोगो से मिलता हूँ, जो भी बातें करता हूँ वो मुझे ज्यादा देर तक लुभा पाने में असमर्थ साबित होते है मैं उनसे जल्दी ही ऊब जाता हूँ और फिर वहाँ से कट लेने के बहाने तलाशने लगता हूँ। स्कूल के दिनों में जो साथी बने थे उनमें से कुछ का कॉल कभी कभी आ जाता है मगर मैं उन्हें मुश्किल ही कॉल करता हूँ। असल मैं मुझे यही लगता रहता है कि मुझे समझना हर किसी के बस की बात नही है और कॉल पे बात करना तो मुझे वैसे भी थका देने वाला कार्य लगता है। मेरे मित्र शायद इसलिए भी नहीं है क्योंकि मुझमें एक झिझक है। मैं ठीक समय पे ठीक बात कभी कह नही पाता हूँ और न ही मैं बाकी लोगों की तरह इधर उधर की बातें करने में माहिर हूँ। मैं हर चीज़ में intimacy खोजता हूँ मुझे हर चीज़ को क़रीब से जानना है। मुझे शुरू से ही यह छोटी-छोटी मुलाकाते व खोखली बातों में कभी कोई दिलचस्पी नही थी। सच कहूं तो मुझे अकेला रहना पसंद है मगर कई बार लगता है कि एक दोस्त होता जो मेरे साथ art, books और music के ऊपर घण्टों चर्चा करता तो कितना अच्छा होता। मेरे अकेलापन मुझे धीरे-धीरे अच्छा लगने लगा था परंतु कभी कभी वो अकेलापन मेरा गला घोटता और दुखी भी कर देता था। मगर कोई था ऐसा भी था जिसने मुझे कभी भी अकेलेपन में अकेला नही छोड़ा और वो थी मेरी यह किताबें जिन्होंने मुझे समझा और मुझे अपने उस संसार का हिस्सा बनाया जहां मैं अपनी जिज्ञासा लेकर कहीं भी विचर सकता था। जब भी तन्हाई गला दबाता मैं किताबों को सूंघ लेता और मुझे सांस आती। किताबों से मेरा एक जाति राब्ता बन गया है मैं इनके साथ सोया हूँ, इनके साथ रोया हूँ और जब भी मुझे किसी के सहारे की जरूरत सी महसूस हुई है मैंने इनकी तरफ रुख किया है । आज भी जब मुझे किसी दोस्त की कमी महसूस होती है, मैं इनके अंदर समाए किसी पात्र से बात कर लेता हूँ।

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