निर्णय (dicision)
मुझे हमेशा से ही, खुशियाँ ढूंढने में दिक्कते रहती आई है। ये शायद मेरे गंभीर रहने का भी नतीजा ह सकता है। मैं कभी यह दावा नहीं करता कि मैं एकदम निडर हूँ या मैं हमेशा सकारात्मक सोच रखता हूँ। मैं बचपन से ही काफी डरपोक किस्म का रहा हूँ, मैं कभी खुले विचार भी नही रख पाया। कुछ भी कहना हो या फिर करना हो मैं उसे करने में हमेशा 100 बार सोचता हूँ और इसी वजह से अक्सर सही निर्णय लेने में देर कर देता हूँ वैसे यह सही निर्णय है क्या? शायद जिस निर्णय का परिणाम हमारे मुताबिक निकले वो सही होता है और जिसका परिणाम हमारे अनुकुल न हो वो खुद-ब-खुद गलत साबित हो जाता है। मेरे द्वारा लिया गया निर्णय इन दोनो से भिन्न होता है क्योंकि जब तक में सोचकर निर्णय लेने के लिए तैयार होता हूँ तब तक वो चीज व विषय आगे निकल चुकी होती है जिसके बारे में निर्णय लेना था और मेरा निर्णय बेतुका रह जाता है। अरे! यार मैं यह कह सकता था, कर सकता था जैसे वाक्य आत्मग्लानि से भर देते है और मैं इसी ग्लानि के साथ नाचता रहता हूँ। मैं अपने मित्रों और परिवार जनों के निर्णय लेने व खुशियाँ ढूंढ लेने की योग्यता से अचंभित रहता हूँ। वे कितनी सरलता किसी भी निर्णय पर पहुँच जाते है और छोटी-से छोटी सी चीज में खुशियाँ ढूंढ निकालते है। मैं उनके इस क्षमता को देखकर सोचता हूँ कि इतनी बड़ी बात तो हुई है नहीं जिसका यह ऐसा जशन मना रहे है मैं तो तभी भी खुश नही हुआ था जब मेरा एडमिशन दिल्ली यूनिवर्सिटी में हुआ था जब अंग्रेजी साहित्य मिला तो पिताजी बहुत खुश हुए मगर मुझे कोई खास खुशी नही हुई।
कितने भाग्यशाली हूँ ये लोग जो उन्हें छोटी-सी छोटी चीज भी आनंदमय अनुभव दे जाते है। कितना कम सोचते है, यह लोग जब कोई निर्णय लेते हैं इन लोगों के निर्णय ज्यादातर सही होते है शायद इसलिए की क्योंकि ये मेरी तरह over thinking के शिकार नहीं है। कितने आत्मविश्वास से भरे है यह लोग जो झिझक मेरे अंदर हर एक चीज़े को लेकर है यह इनके अंदर कितना कम है।
हाँ, लेखन को लेकर मेरा दृष्टिकोण हमेशा से साफ रहा है मै जब कुछ लिखता हूँ तो मेरे द्वारा लिखा हर शब्द किसी निर्णय का मोहताज नही रहता वो तो एक के बाद एक स्वयं के कागज पर उतरता चला जाता है जैसे वे शब्द कोई झरना हो जो मेरे चट्टान हो चुके शरीर से निकल रहें हो। लिखते वक्त मेरे होठों पर एक मुस्कान निरंतर बनी रहती है और मुझे खुशी कि अनुभूति होती रहती है यह झूठी दिखाने वाली नही असली खुशी होती है। मैं लिखे में अपना निज लिख देता हूँ परंतु जैसे ही मैं लिखना बंद कर देता हूँ मेरा पूराना निर्णय लेने का डर सामने खड़ा हो जाता है। "क्या इसे साझा करना चाहिए", "क्या यह इसके लायक भी है?" निर्णय, निर्णय, निर्णय मेरा दिमाग फिर से गहन विचार करने लगता है। "हाँ, करना चाहिए इससे लोग relate कर पाएंगे, परंतु वो मेरी सच्चाई जान जाएंगे", "नहीं, इसे साझा नहीं कर सकते है यह बहुत ज्यादा की निजी है लोग जज कर बैठेंगे" दिमाग में चल रहे हज़ारों शब्द, वाक्य एक दूसरे से टकराने लगते है। उनकी संख्या बढ़ने लगती है वह सफे पर उतरकर मेरे दिमाग में clot होने से बचना चाहते है परंतु अब मै लिखना बंद कर चुका हूँ मेरे होठों को चीरकर निकलना चाहते है, और मैं अब बडबडाने लगता हूँ। मेरी खुशी अब गायब हो गई। मैं पसीने में भीगा हूँ। मुझे जल्दी निर्णय लेना होगा "साझा करूं", "न करूँ", "क्या करूं,छोटा सा ही निर्णय तो है ले ले आकाश" मैं इन वाक्यों को अपने कानों मे सुनने लगता हूँ। ये मुझ पे दबाब बनाने लगती है। "निर्णय लो जल्दी " मैं एक गहरी सांस लेता हूँ और 'पोस्ट' वाले विकल्प को एक झटके से दबाकर कर आँखे मीच लेता हूँ। आवाज़आनी बंद हो जाती है मैं अपना निर्णय ले चुका होता हूँ। मैं सहज हो जाता हूँ। मुझे मेरे कंधे से एक बोइ के हटने की अनुभूति होती है। अब मेरा निज और निर्णय दोनों आपके सामने है । आपके लिए यह मात्र एके लेख है जिसे मैंने यहाँ साझा करने का निर्णय लिया परंतु मेरे लिए यह किसी संघर्ष से कम नही।
धन्यवाद पढ़ने के लिए।
आकाश
बढ़िया लेखन भाई।!निजता साझा करना" और "लेखन साझा करना" ये दो अलग अलग नदियाँ हैं जिनका संगम ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाता है जब हम कुछ लिखने बैठते हैं।
ReplyDeleteबिल्कुल सही का मित्र।🌻❤️
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