"घर" (कहानी)
लेखक: आकाश छेत्री।
बता मोहन कितने का होगा यह घर? राजू ने पूछा और मोहन ने सर खुजाते हुए सोचने लगा।
"मुझे नही पता।" उसने काफी देर सोचने के बाद कहा।
"अरे! कोई तो अंदाज़ा होगा तुझे, तू तो हमारे विद्यालय का सबसे तेज़ बच्चा है।" मैंने आतुरता से कहा। जिसपे वो अपनी ठुडी पर हाथ रखकर वापस गहन विचार में चला गया और हम दोनों उसकी तरह एकटक देखते रहे मानो वो हमें धरती के गोल होने का कोई प्रमाण बताने वाला हो।
"लाख रुपये, हाँ कम से कम लाख रुपये।"
उसने कुछ देर बात कहा जिसपे हम दोनों ने एक साथ कहा।
"लाख रुपये, वो कितने होते हैं।"
"अरे! अब यह भी मैं बताऊँ, वैसे मुझे भी ठीक ठीक नही पता।" उसने कहा और चल दिया परंतु मुझे पता था कि इसका सही जवाब मुझे कौन दे सकता है।
शाम को जैसे ही मैं घर पहुँचा, मैंने देखा पिताजी नहीं आये थे। यह सही मौका था माँ से पूछने का सो मैं सीधे रसोई घर में भागा और देखा तो माँ रोटी बेल रही थी।
"माँ, लाख रुपये कितना होता है" मैंने तपाक से कहा।
"तू क्या करेगा जान कर" उन्होंने बिना मेरी तरफ देखे कहा। यह वो जवाब नहीं था जिसकी मैं प्रतीक्षा कर रहा था उस बड़े घर के चौकीदार ने भी यही कहा था कि तू क्या करेगा जान कर बस उसकी आवाज़ माँ के मुकाबले ज्यादा रूखी थी।
"बताओ न माँ, कितने होते है लाख रुपये।" मैंने माँ की चुनी खींचते हुए फिर से पूछा जिसपे माँ मेरी तरफ मुड़ी और घुटनों पर बैठ गयी ताकि वो मेरे चेहरे के समान आ सके।
"बहुत ज्यादा" उन्होंने कहा।
"बहुत ज्यादा कितना" मैंने कहा।
"और उन्होंने हाथ खोलते हुए कहा इतना ज्यादा" मुझे अभी भी मेरे सवाल का सही उत्तर नहीं मिला था।
"क्या पिताजी के पास होंगे लाख रुपये?"
"वो मुझे नहीं पता, वो तू उनसे ही पूछना"
माँ मेरी तरफ देख रही थी और तभी मुझे कुछ सुझा में कमरे में भागा और अपना गुलक उठा कर वापस रसोई में आ गया। माँ अब वापस मुड़कर रोटी बेलने में लग गयी थी।
"क्या इसमें आ जाएंगे, लाख रुपये" मैंने हांफते हुए कहा। माँ मेरी तरफ मुड़ी और जोर से हँसने लगी।
"लाख रुपये बहुत होते हैं वो इसमें नहीं आएंगे" उन्होंने कहा और मेरे चेहरे पर एक मायूसी आ गयी जिसे उन्होंने भांप लिया वो मेरे करीब आयी और वापस से घुटनों पर बैठ गयी।
"ऐ, गोलू उदास क्यों होता है। मैं बाजार से तुझे और गुलक दिलवा दूँगी। फिर रख लेना उसमें अपने लाख रुपया मगर तू लाख रुपये लाएगा कहा से।" उन्होंने पूछा।
उनकी बातें सुनकर मेरे चेहरे पर चमक आ गयी।
"वो मैं जमा कर लूंगा।" यह कहते हुए मैं रसोई से नाचता हुआ बाहर आंगन में आ गया।
हमारी अच्छी कट रही थी। रोज साथ स्कूल जाते, रोज आते वक़्त राजू चॉकलेट खरीदता और मुझे कंजूस कह देता फिर मुझे आधी चॉकलेट दे देता। स्कूल से आते वक़्त हम उस बड़े घर को निहारते आते और शाम को सीधा बड़े घर के सामने वाले मैदान में बैठकर उसे निहारते और उसके रंग, उसके बरामदे में लगे झूले की और दीवारों पर बनी पत्तों की आकृतियों की तारीफ करते। हम ऐसा रोज करते परंतु हमारा मन नही भरता था हर रोज उसकी तारीफ करते और काल्पनिक कहानियां बनाने लगते।
फिर एक दिन राजू शाम को अचानक शाम को आया उस दिन मुझे बुखार था सो मैं न ही स्कूल और न ही उससे बड़े घर के सामने मिल पाया था। जैसे ही वो मुझे दिखा मैं जैसे चंगा हो गया और उसके कुछ कहने से पहले ही उसे लेके छत पर चला और पूछा।
"आज गया था क्या घर देखने?"
"नहीं, उसने उदासी भरी स्वर में कहा"
"अरे! तो कल चल देंगे, इतना उदास क्यों हो रहा है"
"बात वो नही है, गोलू"
"तो क्या बात है" मैंने एक डर भरे भाव से पूछा और उसने अपनी बात कहनी शुरू की।
उसने बताया कि उसके पिता का ट्रांसफर हो गया है और वो यह छोटा शहर छोड़ कर बम्बई जा रहा है। मैंने पूछा कि वो कब आएगा जिसपे उसने सर हिलाकर पता नहीं कह दिया। मुझे इस समय क्या बोलना चाहिए समझ आ रहा था।
"पर, हमारे उस बड़े घर में रहने के सपने का क्या होगा?"
"जरूरी नही हर सपने जरूरी हों और पूरे ही हो" उसने इस वाक्य को इतनी सामान्य तरीके से कह दी कि मुझे गुस्सा गया।
"अरे! पर मैं उस घर के लिए पैसे जमा......" मैं कहते कहते रुक गया। मेरे गले में शब्द कहीं फस गए थे। उसके दोबारा पूछने पर की मैं क्या बोलने वाला था। मैंने कहा कुछ नही। मैं राजू को यह सब बता कर अपना सरप्राइज खराब नहीं करना चाहता था और शायद उसे ऐसा भी लग रहा हो कि हम वो घर कभी खरीद नहीं पाएंगे और मैं उस घर को ख़रीदकर उसे गलत साबित करना चाहता था।
"तू जाना चाहता है बम्बई" मैंने पूछा।
हाँ, क्यों नहीं, कौन जाना नहीं चाहता। पागल अच्छा स्कूल, ऊंचे ऊंचे मकान, लम्बी गाड़ियां सब तो है वहाँ। अरे! वहाँ तो इससे भी बड़े घर होंगे, छोड़ इस घर को चल हमारे साथ। हम वहाँ कोई बड़ा घर खरीद लेंगे। उसने कहा, उसकी आँखों से उत्साह झलक रहा था।
"तो उदास क्यों था" मैंने पूछा।
"वो तो मैं सोचा कि कहीं तू बुरा न मान जाए"
"मैं क्यों बुरा मनाने लगा" मैंने झूठी मुस्कान के साथ कहा, हालांकि मुझे बहुत बुरा लग रहा था कि वो हमारे बड़े घर में रहने के सपने को भूलकर जा रहा है।
"देख एक बार में वहां हो आऊं फिर कुछ साल बाद आके हम दोनों वो घर खरीद लेंगे" उसने कहा जिसपे मैंने कुछ नहीं कहा।
अगली सुबह राजू बहुत खुश दिखाई दे रहा था वो गाड़ी में बैठा मुस्कुरा रहा था। मैं उसे दूर खड़े होकर देख रहा था और मैं सोचने लगा कि क्या मेरा उसे घर देने का सरप्राइज भी उसे इतनी ही खुशी दे पाता या नही। गाड़ी चलने लगी और राजू ने मेरी तरफ देखकर हाथ हिलाया और गाड़ी चल दी। मैं उसकी गाड़ी का जाना पीछे खड़ा तब तक देखता रहा जब तो वो मेरी आँखों के सामने से ओझल नहीं हो गयी। मेरी आँखों में आंसू थे, राजू मेरे सपने का एक अहम हिस्सा था, वो उस घर के का हिस्सा था। उस बड़े घर की ऊपर की मंजिल उसकी थी।
करीब 7 साल बीत गए मैं 18 वर्ष का हो गया परन्तु न ही राजू आया और न ही उसकी कोई खबर। इस बीच वो बड़े घर के मालिक ने उस घर को भी बेच दिया और कॉन्ट्रैक्टर ने उस घर को तोड़कर उसकी जगह दुकानें बनाने का फैसला कर लिया था। मजदूर घर तोड़ने में लग गए थे। मैं हर रोज अकेला उस घर के सामने जाता और वहाँ मैदान में बैठकर उस घर का टूटना घण्टों देखता रहता। उस घर को टूटते देखना कितना दुःखद था मेरे लिए यह सिर्फ में ही जानता था। पिछले कुछ सालों से यूँही मैं हर दिन उस घर को टूटता देख रहा था, स्कूल से आते वक़्त अचानक मेरे पैर उस घर के सामने रुक जाते। रात को सोते वक़्त भी मुझे उस घर पर चलते हथौड़ों और छेनीयों कि आवाज़े सुनाई देती। कई बार घर आके मैं फूटफूटकर रोता जिसपे पिताजी तो मेरे रोने के पीछे के कारण को जानने की कोशिश करते परन्तु माँ मुझे बस सीने से लगाए रखतीं क्योंकि उन्हें सब मालूम था। बाद में माँ ने उन्हें सब बता दिया और पिताजी मेरे लिए परेशान रहने लगे। इन सबके बीच पिताजी ने मेरा दाखिल इलाहाबाद के लॉ कॉलेज में करवा दिया और आज मेरा आखिर दिन था इस गांव में। माँ पहले तो मुझे दूर भेजने के लोए राजी नहीं हुई मगर फिर पिताजी के कहने पर की जब मैं वहाँ रहूँगा तो स्वस्थ रहूँगा और टूटते घर को देखकर अपना दिल नहीं दुखाऊंगा इन तर्कों से वो मां गई।
मैं तैयार हो गया और माँ ने दही चीनी खिलाई। गाड़ी मुझे स्टेशन तक ले जाने के लिए आ चुकी थीं। मैं गाड़ी में बैठा ही था कि माँ ने लाल कपड़े में लिपटी कोई चीज़ को मेरे गोद में रख दिया। गाड़ी चलने लगी और जब मैंने उस चीज़ पर से कपड़ा हटाया तो यकायक मेरे सामने मेरा बचपन नाचने लगा, यह वही गुलक था जिसे मैंने इतने समय तक सहज के रखा था। गाड़ी अपनी रफ़्तार पर चल रही थी। गुलक को देखते ही मेरे अंदर एक बार उस बड़े घर को देखने की तीव्र इच्छा हुई। मैंने ड्राइवर को बड़े घर के सामने वाले सड़क से चलने को कहा। मैं वहाँ पहुँचा और घर को देखने लगा, घर लगभग पूरा टूट चुका था परंतु एक पल के लिए मुझे लगा जैसे वो साबुत खड़ा हो। मुझे अचानक ऊपर की मंजिल पर राजू हाथ हिलाता हुआ दिखा वो अभी भी बालक ही नजर आ रहा था क्योंकि मुझे नहीं पता था कि वर्तमान में वो कैसा दिखता है। मैं सोचने लगा कि कैसे कोई भोतिक चीज़ आपके जीवन का हिस्सा बन जाती है। चाहे फिर वो कोई झूला हो, पार्क हो, स्कूल की बिल्डिंग हो या क्लास की बेंच हो विभिन्न लोगों के केस में यह कुछ भी हो सकता है हमारे केस में यह घर था। मैं यह सब सोच ही रहा था कि मुझे अचानक दो बच्चों की आवाज सुनाई देने लगी मैंने पीछे मुड़कर देखा तो दो बच्चे उसी बेंच पर बैठकर बातें कर रहे थे जिस बेंच पर बैठकर राजू और मैं इस घर को देखा करते थे। एक पल के लिए मुझे लगा कि इनका यहाँ होना भी मैं कल्पना कर रहा हूँ परंतु ऐसा नहीं था वो सच में यहाँ था ठीक जैसे वो टूटा हुआ बड़ा घर यहां मौजूद था जैसे मैं इस वक़्त यहाँ था। मैं उनके थोड़ा करीब गया और उनकी बातें सुनने की कोशिश करने लगा।
मैंने सुना कि दोनों बच्चों के घर एक दूसरे से काफी दूर थे जिसके कारण उनका मिलना कम ही हो पाता था क्योंकि शाम होने से पहले उन दोनों को घर भी लौटना होता था। दोनों एक साईकल खरीदने का सपना देख रहें थे जिसपे बैठकर वो घूम सके और साथ समय बिताने के बाद सरपट घर भी पहुँच जाए। उनके लिए साईकल का होना वैसे ही था जैसे राजू और मेरे लिए इस घर का होना था। उन दोनों को देखकर अचानक मुझे राजू और अपने बचपन की याद हो आई। मैं अपने गाड़ी के पास गया और अपना गुलक निकालकर बच्चों को दे दिया। मैंने उसमें वो पैसे भी रख दिये जिसे माँ ने मुझे मेरे ख़र्चे के लिए दिया था। दोनों बच्चे पैसों को देखकर खुश हो गए। मैंने उनसे कहा कि इसमें एक साईकल तो आ ही जाएगी जिसपे तुम दोनों घूम सकते हो। दोनों खुशी से उठे और मुझे धन्यवाद कहकर एक दूसरे से गले मिलने लगे, नाचने लगे। मेरी आँखें भी थोड़ी नम हो गयी। इतने में ड्राइवर ने मुझे जल्दी चलने के लिए कहा और मैं गाड़ी में जाकर बैठ गया और गाड़ी तेज़ रफ़्तार से चलने लगी। मैं मुड़कर बच्चों को देखता रहा जब तक वो दोनों ओझल न हो हो गए।
बचपन के दोस्तों का ओझल हो जाना या बदल जाना बहुत अलग तरह का बिछड़न है, यादें कभी धुंधली जरूर हो जाती है लेकिन जो कुछ स्मृति रह जाती है वो अद्भुत होती है वो भाव, वो सपने, वो नोंक, झोंक, सम्बन्ध सब कुछ...बहुत सुंदरता और सरलता से तुमने इस कहानी में भाव प्रकट किए..पढ़कर मन चित्त अच्छा सा हो गया..ऐसा जैसे मैं स्वयं पुरानी यादों में खो गया..बहुत शुभकामनाएं मित्र..लिखते रहो❤️🌸🌸
ReplyDeleteशुक्रिया मित्र। तुम्हारे प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा हमेशा रहती है क्योंकि तुम मित्र होने के साथ साथ लेखक भी हो।🌺🙏
Deleteपूरी कहानी बहुत ही सुंदर तरीके से लिखी हुई है। मैं कहानी पढ़ते समय उसमें खो गया क्योंकि मैं पूरी कहानी को visualise कर पा रहा था। वो घर, वो बेंच सब दिख रहा था। ये एक अच्छे लेखक के ही गुण हैं जो पाठक को उस कहानी में ले जा सके।
ReplyDeleteकहानी का अंत बहुत अच्छा लगा।
🙌🏻❤️
Shivam शुक्रिया भाई, जानकर बहुत खुशी की मेरा लेखन पढ़कर तुम्हें इस तरह के अनुभव हुए। मेरा मक़सद हमेशा से यही रहा है कि अपने लेखन से लोगों के चित्त को छूना रहा हैं बहुत प्रसन्न हूँ, इस तरह की कमेंट पढ़ता हूँ मन प्रफुल्लित हो उठता है। तुम्हारा कमेंट से इस कहानी का मकसद पूरा हो गया।बाह्य बहुत आभार तुम्हें।🙏🙏🌺❤️❤️
Deleteबहुत बढ़िया लिखा है मित्र। कहानी संग्रह छपवा लो तुम अब ✨️
ReplyDeleteशुक्रिया भाई। बस 2-3 कहानी और पूरी कर लूं फिर छपवा लूंगा। 🌺🙏❤️
Delete