पिता और मैं

लेखक: आकाश छेत्री

मैं अपनी माँ के ज्यादा करीब हूँ ऐसा कहना गलत नहीं होगा और पिताजी....., पिताजी के साथ हमेशा से एक अदृश्य फाँसला रहा है शायद ज्यादातर लड़को का अपने पिता के करीब होना हमेशा से मुश्किल रहा है। एक घर में होते हुए भी हम दोनों ज्यादा बात नहीं करते और कभी हो भी जाये तो वो औपचारिक सी सुनाई देती है। पिताजी और मेरे बीच हमेशा से एक दायरा रहा है, एक दीवार रही है जिसमें एक छोटी खिड़की है जहाँ से हम एक दूसरे को देखते है, नहीं वो शायद खिड़की नहीं बल्कि वो हमारा एक दूसरे को देखने का नज़रिया है जो बहुत संकुचित है जहाँ से न मैं कभी उनका पूरा हिस्सा देख पाया हूँ और न वो मेरे उनको लेकर भाव को देख पाए हैं। हम दोनों एक दूसरे की फ़िक्र करते हैं, एक दूसरे के एकदम पास है परंतु एक दूसरे के स्पर्श से वंचित हैं। माँ को गले लगाना सामान्य सी बात है लेकिन पिताजी को आख़िरी बार गले कब लगाया था उसका स्मरण न ही मेरे जहन में है और न ही उनके आलिंगन के अवशेष मेरे शरीर पर मौजूद है। कितना मुश्किल होता है हम लड़को को अपने पिता से कहना कि हमें उनसे प्रेम है और हमें उनपर गर्व है।

मैं पिताजी को रोज़ देखता हूँ कामों में उलझे। वो ज़िमेदारी का बस्ता हमेशा कंधे पर लादे फिरते हैं, उनकी उम्र हो चली है। मैं चाहता हूँ कि वो अपना बस्ता मुझे दे दें ताकि मैं उसे अपने कंधे पर टाँगकर उनके कंधों को आराम दे सकूँ पर वो जिद्दी है या उन्हें मुझ पड़ उतना भरोसा नहीं है और इस बात पे मुझे कभी कभी बहुत गुस्सा आता है, मेरा मन करता है कि उनसे उनकी परेशानी छीन लूँ व अपने और उनके मध्य की दीवार को तोड़कर उस पार जाकर उन्हें कसकर गले लगा लूँ और कंहुँ कि अब मैं बड़ा हो गया हूँ, आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं मगर यह इतना आसान नहीं है। वो हमेशा शांत औरगंभीर दिखते है, वो अपने सर के पीछे दोनों हाथ को जोड़े गहन विचार में ही रहते हैं। मैं उन्हें चुपचाप लैपटॉप के पीछे से देखता रहता हूँ और वो भी मुझ पर नजर रखे रहते हैं जब कभी हम दोनों की नज़रें अचानक मिलती है तो हम दोनों इधर उधर देखने लगते हैं। दरसल मैं जानना चाहता हूँ कि वह क्या सोचते रहते जैन, उनके मन में क्या चलता है। क्या वो भी ठीक मेरी तरह इस बीच की दीवार तोड़ने की कोशिश में हैं।

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