नाटक - शब्दों के बीच


नाटक का शीर्षक: "शब्दों के बीच"
लेखक: आकाश छेत्री 

[ पात्र ]
लेखक – एक बेचैन रचनाकार, जो अकेलेपन में खुद को शब्दों के ज़रिए खोल रहा है

लैपटॉप – एक मूक साक्षी, जिसे मानवीय भावनाएँ महसूस होती हैं

पाठक – एक अजनबी, जो लेखक के शब्दों में खुद को ढूँढता है

[ मंच सज्जा ]

मंच का एक कोना—कमरे की तरह सजाया गया, एक कुर्सी, टेबल, लैपटॉप और अंधेरा
मंच का दूसरा कोना—पाठक का कमरा, नीली रोशनी, मोबाइल या लैपटॉप हाथ में 
बीच में लैपटॉप का “आभासी” रूप—एक तीसरे अभिनेता द्वारा दर्शाया जाता है, जो लेखक और पाठक दोनों से जुड़ता है
___

प्रस्तावना (धीमी रौशनी, कोने में बैठा लेखक, टेबल पर झुका हुआ)

लेखक (धीमे स्वर में):
इतना कुछ है लिखने को कि उंगलियाँ रुकती ही नहीं...
ये दीवारों को कुरेदती हैं, फर्श को...
मैं निहत्था हूँ...
और ये कीबोर्ड... बस एक ज़रिया है, एक मैदान...
जहाँ मैं लड़ता हूँ खुद से।

(धीमे-धीमे टाइप करने की आवाज़ आती है। उसी वक्त मंच के बीच में 'लैपटॉप' पात्र प्रवेश करता है)

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दृश्य 1: लैपटॉप की आवाज़

लैपटॉप (मंच के मध्य, लेखक की ओर देखता हुआ):

वो हर रात आता है।
चुपचाप बैठता है।
मैं जानता हूँ, कुछ टूटने वाला है।

“मैं चाहता हूँ चिल्लाऊँ, पर मेरी स्क्रीन ही मेरी सीमा है।”
उसके हर स्पर्श में एक अनकहा वाक्य होता है।
मैं सिर्फ शब्द नहीं संभालता—मैं उसका बोझ उठाता हूँ।

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दृश्य 2: पाठक की खोज

(मंच के दूसरे छोर पर पाठक प्रवेश करता है, हाथ में मोबाइल, उदास चेहरा)

पाठक:
रातें... अब नींद नहीं लातीं।
बस स्क्रॉलिंग... बस खामोशियाँ...

(एकाएक रुकता है)
ये क्या है?
“मैं निहत्था हूँ... अंधेरे कमरे में नंगा पड़ा हूँ...”

(ठहरकर)
ये मेरे जैसा क्यों लगता है?
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दृश्य 3: तीनों का आपस में संवाद

लेखक:
(स्वगत)
क्या कोई समझेगा... ये जो लिख रहा हूँ, क्या कोई पढ़ेगा...?

लैपटॉप:
मैं गवाह हूँ तुम्हारे हर शब्द का।
तुम टूटते हो, मैं संभालता हूँ।

पाठक (भावुक):
मैं नहीं जानता, तुम कौन हो...
पर जो तुमने लिखा, वही मैं जी रहा हूँ।
तुम मुझे जानते हो, बिना मिले।
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अंतिम दृश्य: तीनों की एकता

(तीनों पात्र मंच पर एक त्रिकोण की तरह खड़े होते हैं)

लेखक:
मैंने खुद को लिखा।

लैपटॉप:
मैंने उसे संभाला।

पाठक:
मैंने उसे समझा।

तीनों (एक स्वर में):

शब्दों के बीच, हम मिलते हैं।
अजनबी होकर भी, सबसे अपने।
एक दुख लिखता है, एक  गवाह है और एक उस लिखे दुख में खुद को खोज पाता है ।
लेखक और पाठक एक ही पन्ने पर जीते हैं

[अवसान संगीत]

धीमी रौशनी, एक हल्की सी धुन, मंच धीरे-धीरे अंधेरे में डूबता है।

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