अनजान हमसफ़र

परिवार की एक तस्वीर, दादा जी की ऐनक, कुछ पुराने सिक्के, पिताजी की हनुमान चालीसा और माँ की कुछ बिंदिया जिन्हें वो कभी कभी अपने माथे में लगाकर पूरे आंगन में घूमता था ऐसी कितनी ही यादों को एक छोटे टिन के बक्से में भरकर वह गांव छोड़कर शहर जा रहा था।

बक्से को कसकर अपने सीने से लगाए वह ट्रैन की खिड़की से बाहर हरे मैदानों को देखकर खुश हो जाता। पीछे भागते पेड़ों को मुड़कर अंत तक देखता फिर सर्प नुमा ट्रैन की बोगियों को देख वो अचंभित सा होकर वापस मुंडी घुमाकर कुछ सोचने लगता। यह उसकी पहली ट्रैन यात्रा थी इससे पहले उसने ट्रैन को बस दूर से पटरी पर भागते देखा था। रेलगाड़ी एक पुल से धड़धड़ाते हुए गुज़री और उसने अपनी आंखें बंद कर ली।

वह अपनी आंखें मूंदे पुल के ख़त्म हो जाने के इंतजार में था परन्तु गाड़ी के पुल छोड़ने के कई सेकंड तक उसने अपनी आंखें नही खोली तभी एक हाथ उसके कंधे पर आके ठहरा और उसने अपनी आंखें धीरे से खोली तो देखा सामने एक लड़की खड़ी थी।

"पुल पार हो गया है अब डरने की जरूरत नहीं है" उसने बेहद ही मीठे स्वर में कहा।

"मैं अजनबी से बात नही करता, तुम जाओ" उसने कहा।

"अरे, मैं अजनबी कहाँ हूँ देखो यह मेरी टिकट यह तुम्हारे सामने वाली सीट मेरी ही तो है।" उसने विश्वास भरी आवाज़ में कहा।

उसने सीट पर खड़े होकर टिकट देखा हालांकि उसे कुछ समझ नही आया कि उसमें क्या लिखा था। वह वापस बैठ गया।

"नहीं मैं डर नही रहा था, वो तो मैं बस....मैं नही डरता किसी भी चीज़ से।" उसने बड़ी ही मासूमियत से कहा।

वह हँसी "अच्छा, तो तुम बहुत बहादुर हो क्यों?" उसने सामने वाली सीट पर बैठते हुए कहा। वह कुछ नही बोला बस मुंडी नीचे किये अपने बक्से को देखता रहा।

तो बाहदुर साहब आपके इस बक्से में क्या है? उसने बक्से की तरफ इशारा करते हुए पूछा।

कुछ नही.... इसमें कुछ नहीं है और पैसे तो बिल्कुल नहीं है। क्योंकि वो तो मेरे पास है ही नही, मेरे पास तो बस यह टिकट है। जो चाचा ने मुझे लेकर दी है और यह एक चिठी है बस।

ओह तो बहादुर साहब आप इस बक्से की हिफाज़त कर रहे हैं। वह उसकी मासूमियत पर हँसते हुए बोली।

वह कुछ नही बोला बस चुप उसे देखता रहा।

तो, कौन है तुम्हारे साथ? तुम्हारे माता-पिता कहाँ है?

उसने पहले इधर- उधर नज़र दौड़ाई और कहा कोई नही है मैं अकेला ही हूँ।

लड़की को उसपर दया आ गई एक लड़का नहीं लड़का भी नही एक छोटा बच्चा अकेला सफर कर रहा है।

"क्या तुम्हें डर नही लगता अकेले सफर में" उसने पूछा

"थोड़ा डर लगता है मगर चाचा जी ने कहा है की अब मैं बड़ा हो गया हूँ और अब मुझे अकेले सफर करना सीखना चाहिए।" उसने जवाब दिया।

अच्छा,अच्छा बड़े आदमी तो बिहार से दिल्ली किस काम से जा रहे हो।

दिल्ली में मेरे माता पिता एक बड़ी कोठी में काम करते है। मैं उन्हीं के पास जा रहा हूँ। उसने बड़ी ही खुशी से कहा।

तो तुम पहले क्यों नही चले गए थे उनके साथ। उसने पूछा।

"वो पहले पिताजी के पास पैसे नही थे, न ही घर था और कोठी में बच्चे को रखने की इजाजत नहीं थी न इसलिए वो मुझे लेके नहीं जा रहे थे। मगर अब उनके पास इतना पैसा आ गया है कि वो मुझे अपने साथ रख सके सो मैं जा रहा हूँ उनके पास। तुम्हे पता है मैं कितने सालों के बाद अपनी माँ से मिलूँगा। पिताजी तो पिछली बार भी आये थे गांव पर मां नहीं आती। मैं जब भी पूछता हूँ तो वो कहते है कि माँ अगली बार आएगी मगर वो कभी नही आती।"

उसकी बातें सुनकर उसकी आंखें नम होने लगी। एक यह लड़का है जो अपनी माँ से मिलने के लिए हजारों मील की दूरी का सफर अकेले तय कर रहा है। इसके आंखों में अपनी माँ से मिलने की आशा साफ झलकती है। और एक वह है जो शहर की ज़िंदगी की हवा लगने के बाद अपने गांव को जैसे भूल ही गयी है। फोन पे न जाने कितनी बार उसकी मां ने उससे मिलने का आग्रह किया मगर उसने हमेशा व्यस्त होने का बहाना देकर उसे टाल दिया। और जब वो कल रात आखिरकार गांव लौटी तो अपनी माँ से सारे रिश्ते तोड़कर वहां से चली आई उसे इस बात का बहुत बुरा लग रहा था कि उसने अपनी माँ को ऐसे-ऐसे शब्द कहें कि जिसके बारे में कोई औलाद सोच भी नही सकता। उसे इतना बुरा लगने लगा कि वह इस चलती गाड़ी में आकर सिर्फ इसलिए बैठ गयी ताकि वह किसी जगह पर गाड़ी से कूदकर खुदकुशी कर लेगी। और अगले जन्म एक अच्छी बेटी बनकर जन्म ले।

मगर ट्रैन में घुसते ही उसने जब इस बच्चे को देखा न जाने क्या हुआ कि उसे अचानक अपनी मातत्व का स्मर्ण हो आया। उसकी मासूमियत में उसे उसकी मासूम मां का चेहरा दिखने लगा सो वह वहाँ बैठ सोचकर  बैठ गई कि खुदकुशी करने से पहले आख़री बार वह किसी से बात करे।

"अच्छा, तुम्हारा नाम क्या है?" अचानक उस बच्चे ने पूछा और उसका ध्यान दिमाग में चल रहे विचारों से हटा।

"अम्रता, और तुम्हारा।"

"सुयोग, मगर सब मुझे गोलू बुलाते हैं।"

"तो मैं तुम्हें क्या बुलाऊं सुयोग या गोलू?"

"जो तुम चाहो, तुम्हारी मर्ज़ी"

"तुम कितना साल के हो?"

"दस साल का और तुम?" उसने पूछा

"23 साल" उसने कहा।

बाप रे! तुम तो बहुत बड़ी हो, वैसे 23 कितने होते हो उसने अपनी उंगलियां गिनते हुए अचंभित होकर पूछा।

"बस दस साल से थोड़ा ज्यादा" उसने हंसकर जवाब दिया।

"अच्छा, तो गोलू तुम कभी पहले दिल्ली गए हो।"

"नहीं, मगर मैंने सुना है वहां बड़ी बड़ी इमारतें हैं, मोटरकार है और वहां के लोग हमेशा जल्दबाज़ी में रहते है।" उसने हाथों से हवा में आकृतियां बनाते हुए कहा।

वह ज़ोर से हँसने लगी और गोलू ने हाथ नीचे कर लिए और वापस अपना बक्सा पकड़ लिया।

"अरे, क्या हुआ और बताओं।" वह अभी भी हँस रही थी।

"तुम मज़ाक बना रही हो, जाओ मैं नहीं बताता कुछ।" उसने चिढ़कर कहा।

"अरे नहीं नहीं बहादुर साहब आप तो नाराज़ हो गए। मैं मज़ाक नहीं बना रही हूँ वो बस.., वो बस मैं इतने दिनों बाद इतना ज्यादा हँसी हूँ न इसलिए" उसकी आवाज़ धीमे हो गई।

"क्या हुआ, क्या तुम परेशान हो?" उसने ऐसे पूछा जैसे उसने उसके भीतर के दर्द को महसूस कर लिया हो। वह उसे अचानक अपनी उम्र से बड़ा लगने लगा। उसके स्वर में एक जवान पुरूष की झलक थी।

"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। वो बस मेरी माँ से मेरी लड़ाई हो गयी है।"

"तुम भी अपनी माँ से लड़ती हो, तुम्हें पता है मैं भी पहले अपनी माँ से लड़ता था। मैं तो कभी कभार उन्हें जमीन पर गिरा कर उनके ऊपर चढ़ जाया करता था। क्या तुम भी ऐसा ही करती हो।"

उसकी ये मासूमियत भरी बातें उसे बार बार उसे गले लगा लेने को मजबूर कर रहीं थी मगर किसी तरह उसने खुद को काबू कर रखा था क्योंकि उसे अच्छे से मालूम था कि एक आलिंगन इस वक़्त उसे फुट फूटकर रोने में मजबूर कर देगा।

"नहीं, यह वैसे वाली लड़ाई नहीं थी।"

"तो कैसी थी, क्या तुमनें उन्हें गिट्टी से मारा था।" उसने वापस गिट्टी की आकृति बनाते हुए पूछा।

"नहीं, यह वैसे भी लड़ाई नहीं थी" उसने हंसकर कहा।

"तो बताओ न कैसी थी, तुम बताओगी नहीं तो मैं मदद कैसे करूँगा।" उसने अपना सर खुजलाते हुए पूछा।

गिट्टी से मारे गए जख्म तो समय के साथ भर जाते है मगर शब्दों के जख्म वक़्त के साथ और ज्यादा नासूर हो जातें है। वह सोचने लगी फिर बोली

"मैं नहीं बता सकती, क्योंकि तुम समझ नही सकते हो।"

"मैं क्यों नही समझ सकता, ऐसा क्या है? मैं सब समझता हूँ।" वह जिद करने लगा।

"ज़िद मत करो, मैं तुम्हें नहीं बताऊंगी, तुम्हें बता कर क्या ही फायदा होगा।" उसने चिढ़ते हुए चिल्लाकर कहा।

वह थोड़ा डर गया और चुप-चाप वापस अपने बक्से को हाथ में किये कभी उसे तो कभी खिड़की के बाहर देखने लगा।

उसे अपने आप पर गुस्सा आया कि उसने एक बच्चे के सामने अपना आपा खो दिया उससे लाख गुना अच्छा तो यह बालक है जिसका खुद पर इतना संयम है। शायद उसके बात बात पे गुस्सा हो जाने की आदत ने ही उसका रिश्ता अपने प्रेमी से तुड़वा दिया और जब गांव लौटी तो माँ का साथ भी इसी गुस्से की वजह से गवां दिया। उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने एक गहरी सांस की और विषय बदलने के विचार से कहा।

"अच्छा, दिल्ली तो बहुत बड़ा शहर है, यह तो बताओ तुम्हारे माता पिता कहां रहते है और तुम उनसे कहाँ और कैसे मिलोगे?"

उसने कोई जवाब नही दिया, वह बस खिड़की के बाहर देख रहा था।

"अभी भी नाराज़ हो। अच्छा मुझे माफ़ कर दो, लो कान पकड़ती हूँ बस।" उसने कहा और अपने कान पकड़ने लगी।

उसे भी हँसी, आ गयी औए उसने उसकी तरफ अपनी गर्दन घुमाई और जेब से एक सफेद रंग का कागज़ निकालकर उसे उसकी तरफ बढ़ा दिया।

"यह चिठी शहर से आई थी। मुझे तो पढ़ना आता नहीं है मगर इसमें लिखा है कि वह अब मुझे अपने साथ रख सकते है और मुझे उनके पास जल्द से जल्द भेज दिया जाए। चाचा जी ने कहा था कि पिताजी मुझे स्टेशन पर लेने आएंगे। इसमें उनका नम्बर और पता भी लिखा है। देखो!"

जब उसने चिठी खोली और उसे पढ़ा तो उसकी आँखें फ़टी की फटी रह गयी अचानक उनमें नमीं आने लगीं। चिठी कोठी वालों की तरफ से थी और उसमें लिखा था कि गोलू की माता पिता की मृत्यु एक सड़क दुर्घटना में हो गयी थी। जब कोठी के मालिक तक यह खबर मिली तो उन्होंने उन्हें पहचाने से भी इंकार कर दिया था और पुलिस ने उनकी लाश को लावारिश समझ कर जला दिया था। आख़िरी सांस चलने तक उसकी माँ ने कोठी की मालकिन से यहीं कहा कि बेशक उन्होंने उन्हें पहचाने से इनकार कर दिया हो लेकिन एक पत्र जरूर उनके गांव तक पहुँचा दे कि अब गोलू अकेला रह जायेगा। उसका इस दुनिया में अपने चाचा के अलावा कोई नहीं है। गोलू उन्हीं के पास रहे और जब वह थोड़ा बड़ा हो जाये तो उसे उसके हिस्से की एक छोटी ज़मीन दे दे ताकि वह अपना गुज़र बसर कर सके। चिठी उसके हाथों में थी मगर उसके हाथ कांप रहे थे, उसके हाथों से चिट्ठी गाड़ी के फर्श पर गिर गयी और उसके आंखों में आँसू की बूंदे उमड़ आयी। उसे लगने लगा कि वह चक्कर खाकर गिर जायेगी, उसने दोनों हाथों से सीट को पकड़ लिया। वह भूल गयी थी कि वह कहाँ है, उसका दिमाग अभी सारी बातों का मतलब निकालने में व्यस्त था। अचानक उसे अपने हाथ पर एक कोमल स्पर्श महसूस हुआ, उसने देखा तो वह गोलू था वह अपनी सीट से उठकर उसके बगल में आकर बैठ गया था उसका एक हाथ उसके हाथों पर था।

"रोओ नहीं, मुझे पता नही की तुम्हारी माँ और तुम्हारे बीच कैसे लड़ाई हुई है मगर जब मैं अपनी माँ के पास पहुँचूँगा तो अपनी माँ से पूछकर तुम्हें बताऊंगा की अपनी माँ से माफी कैसे माँगनी है की जिससे सब ठीक हो जाएगा। मैं जानता हूँ वो तुम्हें माफ कर देंगी। मैं कुछ भी गलती कर दूं पर मुझे भी मेरी माँ अंत में माफ कर ही देती है। माँऐं ऐसी ही होती है, वो ज्यादा देर तक अपने बच्चों से नाराज़ नही रह सकती।"

बिना अपनी परिस्थिति से अवगत यह बालक उसे सांत्वना देने का कार्य कर रहा है। उसे ढ़ाढस बांध रहा है कि वह अपनी माँ से पूछकर उसे हल बताएगा कि उसे अपनी माँ को कैसे मनाना चाहिए बिना यह जाने की उसकी खुद की माँ अब इस दुनिया में नहीं है । वह आशा भरे नयन लेकर मीलों का सफर अकेला तय करके उन माता पिता से मिलने जा रहा है जो न जाने कब का पंच तत्व में विलीन हो चुके हैं। उसे दुःख था मगर उससे गुस्सा भी था कि कैसे उसके अपने चाचा ने थोड़े से ज़मीन के टुकड़े और अपनी ज़िम्मेदारियों से बचने के लिए इस नन्हीं सी जान को बस एक चिठ्ठी जो उसे पढ़नी तक नही आती देकर एक अनजान शहर जाने वाली गाड़ी में बैठा दिया बिना यह सोचे कि वह कभी शहर पहुँच भी पाएगा या नहीं। और अगर पहुँच भी गया तो वहां कैसे रहेगा, कहाँ जाएगा। क्या उसके चाचा ने कभी यह सोचा होगा।

क्या किसी ने भी यह सोचा होगा। उसके आंखों से आंसू के मोटे मोटे बूंद गिरने लगे। वह सोचने लगी कि कहाँ वह स्वयं खुदकुशी करने आई थी जबकि उसके पास सब कुछ था और कहाँ यह बालक जिसने अपना सब कुछ खो दिया है वह इस बात से अनजान सा यहां बैठकर मुझे संभाल रहा है। सच में कितना बहादुर है यह बच्चा। उससे और रहा नहीं गया और वह फूट फूटकर रोने लगी, जो दुख का समंदर उसने इतनी देर से रोक रखा था वो अब उसकी आँखों से फुट पड़ा और वह बालक उसे शांत रहने के आग्रह करता रहा। वह एक झटके से उठी और ट्रेन के टॉयलेट में चली गयी और दरवाजा बंद कर फुट फूटकर रोने लगी। तभी उसे दरवाज़े पर गोलू की आवाज़ सुनाई दी।

"तुम ठीक तो हो न, चिंता मत करो। मैं यहीं हूँ।"

"गोलू, तुम जाकर सीट पर बैठों मैं बस दो मिनट में आती हूँ।"

"तुम रो तो नही रही हो न, अम्रता"

"नहीं" उसने अपनी सिसकने की आवाज़ को कम किया

"ठीक है फिर जल्दी आओ, मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ।" और वह जाकर अपनी सीट पर वापस बैठ गया।

उसने अपना मुंह धोया और शीशे में अपना चेहरा देखा। वह रेलगाड़ी के दरवाजे पे आकर खड़ी हो गई। शाम हो चली थी औए ठंडी हवाएं उसके बालों को उड़ा रही थी। वह अब भी कहीं न कहीं खुदकुशी करना चाहती थी मगर जैसे ही उसने कूदने के लिए अपने शरीर को आगे बढ़ाया गोलू का मासूम चेहरा उसके आंखों के सामने आ गया। वह खड़ी होकर सोचने लगी कि उसे अपनी ज़िंदगी ऐसे खत्म नही करनी चाहिए, उसे अपने लिए नही तो अपनी माँ और गोलू के लिए जिंदा रहना पड़ेगा अगर वह आज इस ट्रेन से कूद गई तो गोलू का कौन रह जायेगा इस संसार में वह एकदम अकेला हो जाएगा। अनजाने में ही सही मगर वह बालक अब उसके जीवन का हिस्सा बन गया है अगर वह उसे छोड़कर कूद गई तो वह भी उसके चाचा की तरह हो जाएगी जैसे उसके चाचा ने सब कुछ जानते हुए भी उसका साथ छोड़ दिया था ठीक वैसे ही सब कुछ जानते हुए वह भी तो उसे यहाँ बीच राह पर छोड़कर जा रही है। फिर क्या फर्क रह जायेगा उसके चाचा और उसमें। उसने काफी देर दरवाज़े पर खड़े होकर सोचा और उसके अंदर का मातृत्व जागा और फिर अंत में उसने निर्णय लिया कि वह खुदकुशी नही करेगी, वह इस बच्चे को अनाथ नही होने देगी, वह उसे अनजान शहर में डर डर की ठोकरे खाने के लिए नही छोडगी, वह उससे मुंह नही मोड़ेगी। वह उसे अपने साथ रखेंगी जैसे उसने उसे समझाया बेशक थोड़ी ही देर के लिए सही मगर जैसे उसने उसका खयाल रखा उसके और उसकी माँ के बारे में सोचा। वह भी उसका ख़्याल ज़िन्दगी भर रखेगी और उसके बारे में सोचकर जीएगी।

उसने दरवाज़ा बन्द किया और अपनी सीट पर लौटकर देखा तो गोलू उसके इंतज़ार में बैठा था उसने जैसे ही उसे देखा वह उठकर खड़ा हो गया। दोनों एक दूसरे को देखकर भावुक हो गए। उसने अपनी बाहें खोली और गोलू भागकर उसके गले लग गया।

Comments

  1. हर बार आपका लिखा इतना सुंदर लगता है कि आपकी प्रतिभा से inspire भी होजाता हूँ और साथ ही साथ एक तरह की ईर्ष्या भी होती है कि मैंने ऐसा क्यों नहीं लिखा कभी, काश मैं भी कभी इतना सघन लेखन लिख सकूँ। अगली रचना का इंतजार रहेगा ✨

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    1. कला को पहचाना भी एक तरह का आर्टिस्टिक काम ही है। बहुत अच्छा महसूस होता है जब इतना प्यार कंमेंट अपने लिखे के बारे में पढ़ता या सुनता हूँ। भाई तुम जैसे लोग जी जो हम जैसों को लिखने के लिए प्रेरित करते हो। सबसे बड़ी बात यह भी है कि आप अपना समय निकालकर इसे पढ़ते हो और साथ ही इतने प्यारे फीडबैक देते हो। तुम्हें दिल से शुक्रिया भाई। आशा करता हूँ आपको आगे आने वाली रचनाएं उतनी ही पसन्द आये जितनी यह आई है। 🌺❤️🙏

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