दूर व समीप
दूर से देखने पर कोई भी चीज़ वैसी नहीं होती जैसा वो पास से देखने पर लगती है। इंसान पर भी यही बात लागू होती है जब हम किसी इंसान के साथ होते है तब कई बार हम उनके दुःख, उनके संघर्ष को देखने में असमर्थ नज़र आतें हैं। हमें लगता है पिता तो हमेशा से इतने ही मेहनती रहे होंगे, माँ कितनी आसानी से सुबह से शाम चार दिवारी के अंदर रहकर बिता देती है, बड़ी बहन के अंदर यह स्नेह की भावना बड़ी होने के ही एक निशानी है या किसी मित्र को जो हमेशा बकैती करता है हमको लगता है इसके जीवन में शायद कोई परेशानी नहीं है तभी यह इतना खुश रहता है। हमारे मन में उनकी जो तस्वीर बचपन से ही है हम उसी को अपने साथ लिए फिरते हैं। हम उन्हीं तस्वीरों के सहारे उनको समझते हैं और हम जब उन्हें याद भी करते हैं तो उनके समय के साथ बदलते चेहरे नहीं बल्कि उनकी यही तस्वीर हमारे आँखों के सामने आतें हैं। उनके यही तस्वीर हमें बिल्कुल उन्हीं की तरह सामान्य से नज़र आते हैं जैसे वो हमें हमारे करीब होने पर नज़र आते हैं। क्योंकि हमारे सामने वे सभी लोग नॉर्मल सा ही बर्ताव करते है। पिता से पूछो की 'आप इतनी मेहनत कैसे कर लेते हैं' तो उनका जवाब होता है' मैं तो बचपन से ही इतना मेहनती हूँ' जैसे बचपन में पोलियो की जगह मेहनत की ड्रॉप उन्हें दी गई हो। माँ से पूछो की माँ तुम घर पर रहकर बोर नही हो जाती तो उनका जवाब होता है कि अपने ही घर में कौन बोर होता है, कितना काम रहता है घर में बोर होने का फुर्सत ही नही होता। किसी दोस्त से पूछो की क्या वो जीवन में खुश है? तो जवाव सुनने को मिलता है कि सब मस्त है। यह सब लोग हमारे क़रीब रहते है मगर हम वो ही देखते है जैसा यह हमें दिखाते है। वो हमारे समाने अपने दुखड़े नहीं गाते है क्योंकि वे हमें अपने दुखड़े सुनाकर परेशान नहीं करना चाहते। परंतु जब हम उन्हें दूर से अपना करीबी नही बल्कि किसी अनजान व्यक्ति के समान देखते हैं तो हमें पता चलता है कि वे सब अंदर से कितने क्षतिग्रस्त है, वे सब कितना बदल चुके हैं, हर दिन वे अपना एक और हिस्सा हो देते है फिर भी जब भी वो हमसे मिलते हैं तो एक मुस्कान उनके चेहरे पर हमेशा बनी रहती है। हमें अपने हर करीबी को एक बार थोड़ा दूर से किसी अनजान व्यक्ति की तरह देखना चाहिए जैसे जब पिता हर सुबह काम के लिए तैयार हो रहें तो हमें बिना उनके मालूम पड़े उन्हें दूर से तैयार होते देखना चाहिए, माँ को कभी चुपके से किचन के दरवाज़े पे खड़े होकर देखना चाहिए जब वो सबके लिए खाना बनाने में व्यस्त हो या फिर उस मित्र को दूर से देखना चाहिए जब वो चुप अकेला बैठा हो तब जाकर हमें शायद इस बात का अंदाजा लग सके कि यह हमेशा मुस्कुराते चेहरे असल मैं कितने थके हुए, जीवन के संघर्ष के पाट में किस तरह रोज पिसे जातें हैं। और जब वो हमसे अगली बार मिले तो हम उन्हें कसकर गले लगाए और उन्हें के प्रेम और ठहराव से भरे आलिंगन में बांधे रहे। जब तक वे अंदर से थोड़ा सुकून न पालें।
लेखक (आकाश छेत्री)
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